ज़िन्दगी तेरे दिये जख्मों को सिल रहे है।
ज़िन्दगी तेरे दिये जख्मों को सिल रहे है।
हम किसी से भी न आजकल मिल रहे है।।1।।
हम ही जानतें है बगैर तेरे कैसे जी रहें है।
तुम्हेँ भुलानें की ख़ातिर हम तो पी रहे है।।2।।
आकर के हमारी मय्यत पर वह रो रहे है।
कोई बता दे उनको हम सुकूँ से सो रहे है।।3।।
भरते थे बड़ा दम्भ वह यूँ इश्क़ में हमारें।
गैरों से दफना के वो अपने घर जा रहे है।।4।।
बड़ा परेशां रहते थे जिंदा रहनें पे हमारे।
अब खुश रहना तन्हा तुम हम जा रहे है।।5।।
खामों खां डरते थे तुम इश्के रुसवाई से।
देखो तुम्हें रुस्वा करके ना हम जा रहे है।।6।।
जो चला ना पाये इक रिश्ता जिंदगीं का।
निज़ाम पा कर वह वतन को चला रहें है।।7।।
तक़सीम करके कुछ दौलत यूँ गरीबों में।
वह गुनाहों को अपने सबसे छिपा रहे है।।8।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ