ज़िन्दगी के बदलते रंग
दिनों दिन
मेरे जज्बात
बर्फ की तरह होते जा रहे हैं
झक सफेद
बेरंग से
ठंडे-ठंडे
जब भी अकेला होता हूँ
निपट तन्हाइयों में
ढूंढता फिरता हूँ मैं
कुछ गुलाबी जज्बातों को
उन चटकीले अहसासों को
कुछ सुनहरे सपनों को
पर न जाने क्यों
दूर दूर तक
रंग के एक छींटे भी नहीं दिखाई देते
अब सब कुछ बस बेरंग से
या यूँ कहूँ
बदरंग से दिखाई देते हैं
वो खुशनुमा
हरे भरे जज्बात भी मानो
गुम हो गए हैं कहीं
जिंदगी के इस चिड़ियाघर में
और सब कुछ होते हुए भी
लगता है मेरे दोनों हाथ
बस रीते रह गए हैं
बिल्कुल ही खाली
यूँ ही कभी कभी
बहुत याद आते हैं मुझे
वो लाल-पीले जज्बात भी
जो दुबक कर बैठे हैं
मन के भीतर
बहुत अंदर
किसी कोने में
और अब
मेरी नजरों के सामने
किसी के साथ कितना भी बुरा हो जाये
किसी को निर्वस्त्र ही क्यों ना कर दिया जाये
मेरी सन्वेदनाएं नहीं जागती
और बर्फ सा
बुत बना
भीड़ में खड़ा
देखता रहता हूँ मैं सब कुछ
चुपचाप
मानो
मौन स्वीकृति हो मेरी भी
लोधी डॉ. आशा ‘अदिति’
भोपाल