ग़ज़ल
बदल रही है चमन की फजा पता है क्या।
नसीमे सहर का नश्तर कोई चुभा है क्या।
फिर इंक़लाब की आहट सुनाई देती है,
क़फ़स को लेके परिन्दा कोई उड़ा है क्या।
उसे पता है मेरी रोशनी कहाँ तक है,
कभी चिराग भी सूरज को देखता है क्या।
परिन्द फिर से उठाए हैं चोंच में तिनके,
कोई दरख़्त यहाँ फिर हरा हुआ है क्या।
सुना जो तुमने वो मैंने कभी कहा भी नहीं,
कहा जो मैंने वो तुमने कभी सुना है क्या।
वो शख्स सर पे बुज़ुर्गों का हाथ हो जिसके,
चिराग़ उसका हवा से कभी बुझा है क्या।
मिज़ाज गर्म है,लहजे में तल्खियां क्यों हैं,
तू आज खुद की निगाहों से गिर गया है क्या।
तमाम उम्र सभी के दिलों पे राज किया,
कुछ अपने दिल का भी बेदिल अता पता है