ग़ज़ल
आदमी को यकबयक क्या सुरूर हो गया,
खुद से खुद जाने कैसे वह दूर हो गया ।
इन्सानियत में इतनी दुश्वारियां तो न थीं,
फिर छोड़ने को क्यों कर मज़बूर हो गया ।
शौकौ सोहबत में जो पी ली थी एक दिन,
फिर तो रोज-ब-रोज ये दस्तूर हो गया ।
बदनामियों में वह उलझा रहा इस तरह,
बैठे बिठाए देखिए मशहूर हो गया ।
ईमान की राह में जो नुकसान देखकर,
सच मानिए ईमान से वह दूर हो गया ।
मराहिले-मंजिल वह चढ़ता रहा इस कदर,
पाकर वकार देखिए मगरूर हो गया ।
-अशोक सोनी