ग़ज़ल
खिडकी से आती धूप दिवार पर इस कदर फैलती है
चारों तरफ़ हमारे रिश्ते की खुश्बू जैसे रोज़ फैलती है
चेहरे पे खुशियाँ लेकर आते जाते रहते हैं दोस्त बनकर
वोही चेहरों पे न जाने कितने चेहरे नज़र आने लगते हैं
हर दिन घर की चौखट पर पैर जमाएं खड़े हो जाते थे
दूर तलक देखता हूँ सरेआम वो पीठ ही नज़र आती है
अब किसी चेहरे से मेरा कोई वास्ता ही नहीं रहा अमुमन
प्यार के नाम मज़हब को जोडकर छुरियाँ घोंपता रहता है
– पंकज त्रिवेदी