$ ग़ज़ल
31- बहरे हज़ज़ मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन×4
1212/1212/1212/1212
# ग़ज़ल
इताब भूल के जिसे मिले क़रीब हो गये
यूँ ज़िंदगी खिली हसीं बड़े नसीब हो गये/1
इनाद की गुबार को मिटा चले ज़नाब हम
असास प्रेम की रखी यहाँ नजीब हो गये/2
निगार से ख़ता नहीं वफ़ा रही उसूल से
यही सिला मिला ख़ुमार का अज़ीब हो गये/3
क़िताब को नदीम जो बना लिया रज़ा खिली
इरादा ले चले हुज़ूर यूँ अदीब हो गये/4
लड़े ज़फ़ा से हौसला लिए क़रार मिल गया
रक़ीब को हरा उसी के हम हबीब हो गये/5
जमाल पर कमाल है जलाल इल्म से मिला
निहार दूर सब खड़े अरे रक़ीब हो गये/ 6
विकार ज़िंदगी लिए है धूप छाँव सा यहाँ
अमीर जो ग़रूर से चले ग़रीब हो गये/7
# आर.एस. ‘प्रीतम’
सर्वाधिकार सुरक्षित ग़ज़ल
शब्दार्थ-
इताब- क्रोध, इनाद- वैर, गुबार- धूल, असास- नींव, नजीब- कृपालु, निगार- प्रेमिका, ख़ता- भूल, सिला- ईनाम, ख़ुमार-नशा, अजीब- निराला/अद्भुत, नदीम- श्रेष्ठ मित्र, अदीब- विद्वान, ज़फ़ा- अन्याय, क़रार- संतुष्टि, रक़ीब- प्रतिद्वंदी, हबीब- मित्र/सखा, जमाल- सुंदरता, जलाल- प्रताप/तेज, इल्म- ज्ञान