$ ग़ज़ल
29- बहरे हज़ज़ मुसम्मन अशतर
मक़्फ़ूफ़ मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम
फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन
212/1222/212/1222
आदमी नहीं आता है समझ ज़माने में
रंग सौ लिए है इक रूप के फ़साने में/1
ख़ुद लुटे शिकायत हो बार-बार लाखों से
ग़ैर का मज़ा ले पर ज़ख्म को बढ़ाने में/2
दोगली कलाएँ ये आदमी लिए क्यों है
चार दिन मिले हैं मिलके जिए तराने में/3
दर्द मर्ज़ सबका ही एक है यहाँ यारों
भूलकर इसे क्यों जीते सभी बहाने में/4
ये ज़मीं हमें देती हर ख़ुशी मुहब्बत से
और हम लगे हैं सब कुछ भुला सताने में/5
हिचकियाँ ये रूहानी प्यार की निशानी हैं
कौन है तन्हा जिसके ये रहें ख़ज़ाने में/6
आदतें सही ‘प्रीतम’ आन से लगाना तुम
दूर तक निभाएँगी साथ ये हँसाने में/7
#आर.एस. ‘प्रीतम’
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