$ग़ज़ल
बहरे रजज़ मुसद्दस सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212/2212/2212
# ग़ज़ल
कैसा अज़ब ये हादसा अब हो गया
हर आदमी ख़ुद में यहाँ रब हो गया//1
चालाकियाँ सब सीख ली डरता नहीं
अपने लिए तो सुब्ह भी शब हो गया//2
कितने मुखौटे ओढ़ कर छलता चले
बहरूपिये-सा रूप मज़हब हो गया//3
परिणाम पढ़ता है बुराई का यहाँ
फिर भी बुरा क्यों बेअदब फब हो गया//4
सपना लगे घटना घटी हर पल यहाँ
हर हाल हम यूँ पूछते कब हो गया//5
तेरी नहीं मेरी नहीं सबकी दशा
जो घर कलह में शोर मतलब हो गया//6
‘प्रीतम’ अगर ख़ुद को समझ ले आदमी
इस ज़िंदगानी के लिए नब हो गया//7
# आर.एस. ‘प्रीतम’
सर्वाधिकार सुरक्षित ग़ज़ल