ग़ज़ल
—-ग़ज़ल—-
दिया प्यार का गर जलाया नहीं है
मिला इसलिये तो उजाला नहीं है
जो इंसां का रिश्ता जो इंसां से यारों
किसी ने ये रिश्ता निभाया नहीं है
मैं ये जानता हूँ बुरी है सियासत
मगर मुँह पे मेरे भी ताला नहीं है
ख़ुदा ही है मालिक ये सारे जहां का
सिवा उसके कोई किसी का नहीं है
ख़ुदा नाख़ुदा जब बना हो किसी का
कभी दूर उससे किनारा नहीं है
उठाये भले ही वो भूखे सभी को
मगर भूखे हरगिज़ सुलाता नहीं है
ज़माने में प्रीतम ये जाना है हमनें
दुआओं सा कोई ख़ज़ाना नहीं है
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)