ग़ज़ल
क़ातिल तेरी अदाएँ शातिर वो मुस्कुराना
पहलू में है छिपा खंजर वैसे दिल मिलाना
कुछ तो मिज़ाज खुद का बाक़ी असर तुम्हारा
ऐसे खुशी में झूमे अब बन गया फ़साना
फ़ितरत तेरी समझकर ही हँस सभी रहे हैं
मिलकर तेरा सभी से यूँ हाले-दिल सुनाना
सबको खबर हुई मुश्किल आ पड़ी उसे है
फ़िर से करीब आने का ढूँढता बहाना
माना के सब ज़हर तुमने पी लिया अकेले
लेकिन कभी न भूलो शमशीर का निशाना
ईमान ही ‘अमर’ खुद तेरा गवाह सब दिन
हैं ज़ख्म कुछ हरे पर गैरों को मत रुलाना