ग़ज़ल
जिस्म फ़िर से कुहरता चला जा रहा
क्या अँधेरा पसरता चला जा रहा
लोग रोते हमेशा मुकद्दर पे जो
वक़्त उनका ठहरता चला जा रहा
रोशनी की जरूरत पड़ी आज जब
दीप बनके मैं बरता चला जा रहा
आप के सामने फिर खड़े हो गए
देखिए मैं निखरता चला जा रहा
आँधियों को तो थमना ही था एक दिन
काम सब अपने करता चला जा रहा
आग से खेलने का हुनर चाहिए
रोशनी बन बिखरता चला जा रहा
दाँव पर तुम लगाते रहे सब ‘अमर’
इसलिए घाव भरता चला जा रहा