ग़ज़ल
हर इक़ ग़लत बात पे कितनों से लड़ गया
वो दूसरों को सुधारते सुधारते ख़ुद बिगड़ गया
इक़ दरख़्त ने कई पौधों को बचाये रक्खा
पाल पोसकर बड़ा किया औऱ ख़ुद उजड़ गया
सच कह देने वालों को ही जाने क्यूं सज़ा है
झूंठे सलामत रहे,जो सच बोला माटी में गड़ गया
हर कोई फ़कत अपनी ही रज़ा चाहता है
दूसरों को हंसते देखा तो अन्दर तलक सड़ गया
~अजय “अग्यार