ग़ज़ल
(१)
राजा’ मंत्री हुआ करे कोई
जनता’ से तो वफ़ा करे कोई
|
बात सबको खरी खरी बोलूँ
द्वेष हो तो जला करे कोई |
दिल्लगी तो कभी नहीं करता
मर्जी’ उनकी हँसा करे कोई |
राह कानून की नहीं आसां
वीर उसपर चला करे कोई |
संत कानून से नहीं डरते
विधि के’ रक्षक डरा करे कोई |
जीत कर वो चुनाव, लुप्त हुए
हैं कहाँ वो, पता करे कोई |
हों बड़े छोटे’ फर्क कोई’ नहीं
आम जन की दवा करे कोई |
जिब्ह बकरे’ की आज होना है
नेक मुल्ला दुआ करे कोई |
बोलते बोलते नहीं थकते
“काली’” की अब सूना करे कोई |
(२)
लीक से हट नया करे कोई
रूढ़ि को अब विदा करे कोई |
पाप का वो घडा भरा है अब
बकरे’ की माँ दुआ करे कोई |
माँगता है रहम सभी पापी
हो इनायत खुदा करे कोई |
तल्ख़ बातें न बोलना तू’ कभी
बोले’ कोई सूना करे कोई |
बेसहारा निरीह को फाँसा
दींन हीन और क्या करे कोई |
अब भरोसा नहीं रहा किसी’पर
क्या किसी से गिला करे कोई ?
कामना आदमी से’ क्या “काली”
ऐ खुदा ! तू हाज़त रवां* करे कोई |
शब्दार्थ : हाज़त रवां – इच्छा पूर्ति
कालीपद ‘प्रसाद’