ग़ज़ल- सूरज के डूबते ही ये तारे निकल पड़े…
सूरज के डूबते ही ये तारे निकल पड़े।
जो छुप गये थे माद में सारे निकल पड़े।।
दम भूख से निकल गया इक़ बदनसीब का।
उसकी रसोई करने को सारे निकल पड़े।।
जीते-जी लंगड़े को तो सहारा दिया नही।
काँधे पे अब उठाने सहारे निकल पड़े।।
था दम्भ जिनको वो भी ज़मींदोज हो गए।
सैलाब के उतरते किनारे निकल पड़े।।
तस्वीर खींचते ही रहे डूबने की वो।
फिर लाश ढूंढने ले शिकारे निकल पड़े।।
फूटी हुई भी आँख से देखा नही कभी।
आँखों से आँसू आज तुम्हारे निकल पड़े।।
स्वारथ में ‘कल्प’ लुट रहे रिश्ते भी खून के।
रिश्तों मे आज देखो घसारे निकल पड़े।।
अरविंद राजपूत ‘कल्प’
221. 2121. 1221. 212