ग़ज़ल-सुधीर मिश्र
ग़ज़ल-
ईमान की क़द्र या इलाही देख चुके हैं।
इंसाफ़, फ़ैसले ,गवाही देख चुके हैं।।
मंज़र हैं खौफ़नाक रूहें चीखती यहां,
कितने ही घरों की तबाही देख चुके हैं।।
आज़ाद हैं सब अपनी बात कह सकें मग़र,
सच बोलने पे है मनाही देख चुके हैं।।
बातें तो हो रही हैं बहुत चैनो अम्न की,
लेकिन तुम्हारी तानाशाही देख चुके हैं।।
बातों पे भरोसा नहीं’निश्छल’रहा हमें,
कितने ही महीने-छमाही देख चुके हैं।।
(सर्वथा मौलिक व सर्वाधिकार सुरक्षित)
✍?सुधीर मिश्र”निश्छल”
घिरोर, मैनपुरी(उप)205121
7906958114