ग़ज़ल- वो गुनाहों का एक साया था
ग़ज़ल- वो गुनाहों का एक साया था
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वो गुनाहों का एक साया था
दाग दामन पे जो लगाया था
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अक्ल पे जैसे पड़ गया परदा
एक ज़ालिम पे रहम आया था
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भूल पायेगा वो मुझे कैसे
मुझको आँखों में जो बसाया था
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जिसपे कुर्बान कर दिया खुद को
मैं उसी से फरेब खाया था
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दूर रहता है आजकल मुझसे
जो कभी प्यार बन के छाया था
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दिल अगर ये “आकाश” टूटा है
दोष तेरा है आजमाया था
– आकाश महेशपुरी