ग़ज़ल:- मैं जख़्मों को अपने छिपाता रहा हूँ
मैं जख़्मों को अपने छिपाता रहा हूँ।
हँसा हूँ ख़ुदी पे हँसाता रहा हूँ।।
मिटाता जमाना बने घोंसलों को।
मैं चुन चुन नशेमन बनाता रहा हूँ।।
वो आबोहवा को मिटाते रहे हैं।
ज़मीं पे शजर मैं लगता रहा हूँ।।
सियासत की ख़ातिर, वो फैलाते नफ़रत।
चराग़े मुहब्बत जलाता रहा हूँ।।
नहीं “कल्प” उम्मीद करता किसी से।
फराइज़ हैं जो बस निभाता रहा हूँ।।
:- अरविंद राजपूत ‘कल्प’