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29 Sep 2016 · 1 min read

ग़ज़ल…’मरेंगे जिएंगे ; जिएंगे मरेंगे..’

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जहाँ पर गगन और सागर मिलेंगे
ज़ुदा दिल कभी तो वहीँ पर मिलेंगे

गुलों ने चमन में मुस्काते कहा है
कली है अभी जो तुम्ही से खिलेंगे

बड़े बेशरम हैं तिरे शहर वाले
पता मांग लूँ अगर गड़बड़ लिखेंगे

पंछी शाम जब ‘ आशियाने मुड़ेंगे
उसी वक़्त हम ‘ तुम ‘ सूरज ‘ ढलेंगे

ग़लतफ़हमियों में कभी जब लड़ेंगे
मरेंगे जिएंगे ; जिएंगे मरेंगे

बताना नहीं तुम ज़ज़्बाते दिलों को
मजा कर रहे हैं ‘ मजे से हँसेंगे

सितमगर तैयारियाँ… और कर ले
मिरी वापसी; दूत…. कल तक चलेंगे

अदाएं ;वफायें ; निगाहें ; ज़माने
फ़क़त याद है अब ‘ लिखेंगे लिखेंगे

नए प्रेमियों की सदा ताज़ जाकर
चंदा ‘चांदनी ‘ब’ मुमताज़ निकलेंगे

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रजिंदर सिंह छाबड़ा

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