ग़ज़ल- नही सुगंध मिलेगी तुझे ज़माने में
नही सुगंध मिलेगी तुझे ज़माने में।
बदन महकता पसीने से ही नहाने में।।
बहाते खून पसीना महल बनाने में।
लगे हैं लोग वहीं झुग्गियां जलाने में।।
ज़मने भर की ख़ुशी पाके कुछ कमी सी थी।
मिली है प्यार की दौलत तेरे ख़ज़ाने में।।
उलझ के रह गया अरदास कर नहीं पाया।
गँवा दी जिंदगी दो रोटियाँ कमाने में।।
जो आये हुश्न कभी सामने यूँ दुश्मन के।
पिघलता वर्फ़ सा क़ातिल भी मुस्कुराने में।।
ठहर गयीं हैं निगाहें तुम्हारी सूरत पर।
लगे हैं ‘कल्प’ को फिर भी सभी रिझाने में।।
अरविंद राजपूत कल्प