ग़ज़ल – ‘दिल जला या मैं जली’
हाथ मेरा थाम कर तुम चल पड़े जो हर गली
राह की हर चोट भी तो लग रही थी तब भली
दिख रहा था वो मुसाफिर बीच रस्ते लौटता
कौन जाने बात मेरी कौन सी उसको खली
साथ अपने नाम तेरा लिख सकूं ओ हमनवा
आज फिर से आरजू ये,क्यूँ मिरे दिल में पली
फ़ासला ये आजकल जो है हमारे दरमियाँ
दूर होता भी तो कैसे तुम चले ना मैं चली
सोच ना तूने मुझे छल है लिया इस चाल से
जान कर सब चाह तेरी,चाल खुद की से छली
फेरकर नज़रें चला जब, पूछ ना क्या हाल था
राख होता दिख रहा सब, दिल जला या मैं जली
सुरेखा कादियान ‘सृजना’