ग़ज़ल- तड़पता छोड़ के अक़्सर वही तो जाते हैं…
तड़पता छोड़ के अक़्सर वही तो जाते हैं।
कि जिनको प्यार का हम आसरा बनाते हैं।।
बुला के पास हमें ख़ुद ही दूर जाते हैं।
ख़ुदा के वास्ते इल्जाम ही लगाते हैं।।
बना के अपना रुलाते हैं जिंदगी भर जो।
वो लोग प्यार को कुछ इस क़दर भुनाते हैं।।
मिलेगी उनको ख़ुशी महफ़िलों में अब कैसे।
ग़मों को बांट के जो ख़ुद ख़ुशी मनाते हैं।।
ग़मों के साये तले जिंदगी बिता हमने।
छुपा के दर्द दिलों मे यूँ मुस्कुराते हैं।
यहाँ पे ‘कल्प’ भरोसा करें भी किस पर अब।
कुदेर जख़्म को नासूर ही बनाते हैं।
अरविंद राजपूत ‘कल्प’