ग़ज़ल:- जब धरा को बादलों से, आस बन गई होगी…
जब धरा को बादलों से, आस बन गई होगी।
इश्क़ की लबों पे इक़, प्यास बन गई होगी।।
सर्दी धूप बारिश की, मौसमी बहारों में।
आशिक़ी ही क़ुदरत का, रास बन गई होगी।।
घूमती धरा क्यों ये, सोचते सितारे सब।
आसमाँ के तारों को, आस बन गई होगी।।
रह गया कुँवारा वो, घूमता ही रहता है।
घर बसा के धरती तो, सास बन गई होगी।।
शम्स जल रहा जबसे, आग ही उगलता है।
सोच चाँद शीतल की, दास बन गई होगी।।
दिन में तो रख लेता, ‘कल्प’ की निगाहों से।
रात होते चंदा की, ख़ास बन गई होगी।।
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’