ग़ज़ल- क्यूँ दर्पन टूट जाता है
तुम्हारा क्या चला जाता जो चलने से जरा पहले
जरा सा मुस्कुरा देते बिछड़ने से जरा पहले
मुझे महबूब से मिलने की जल्दी जब भी रहती है
क्यूँ दर्पन टूट जाता है सँवरने से जरा पहले
मुझे क्यों अक्ल आती है समय के बीत जाने पर
नहीं कुछ होश रहता है बिगड़ने से जरा पहले
बड़ी गहरी नदी है यार डर है डूब जाने का
कहीं तुम तैरना सीखो उतरने से जरा पहले
वही छूते यहाँ ‘आकाश’ अक्सर कामयाबी को
कदम जो रोक लेते हैं फिसलने से जरा पहले
– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 05/06/2022