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7 Oct 2018 · 1 min read

ग़ज़ल-इलाज़ रो रहा कहीं हक़ीम खुद बीमार हैं

$$$$$$$$$$$ग़ज़ल$$$$$$$$$$$$

कुढी हुई है सभ्यता कमी रही विचार की ।
चली हुकूमतें यहाँ तभी तो दाग़दार की ।

सदा डरी है सत्यता बुरा बड़ा बना रहा ।
बुराइयों में दब गई वो कोशिशें हज़ार की ।

बेरोक टोक चल रही तमाम जालसाजियां ।
आवाज़ मूक हो रही वो न्याय के पुकार की ।

यूँ काग़ज़ी धरा धरी शिकायतें निपट गयीं ।
अदालतें ही खा गयीं गुहार कामगार की ।

निभी न दोस्ती कभी हवस हवस बनी रही ।
धुँआँ धुँआँ पड़ी रही ख़ुमारियाँ वो प्यार की ।

इलाज़ रो रहा कहीं हकीम ख़ुद बीमार हैं ।
मरीज़ कर रहे दवा दुआ चुकी मज़ार की ।

कि जिंदगी को है मिला ईनाम मौत का मग़र ।
समझ सका न आदमी ये साँस है उधार की ।

– #रकमिश सुल्तानपुरी
#सुल्तानपुर

2 Likes · 1 Comment · 377 Views
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