ग़ज़ल- इंसानियत को छोड़ के शैतान बन गया
इंसानियत को छोड़ के शैतान बन गया।
इंसान आज का तो, ये हैवान बन गया।।
उसकी जरूरतों पे, मैं पहचान बन गया।
करवट जो बदली वक़्त, ने अनजान बन गया।।
लाया तबाही जिस्म पे बारूद बाँध कर।
इंसान ख़ुद ही मौत का सामान बन गया।।
दुश्मन के बीच देश की वो आन बन गया।
मां भारती का लाल तो अभिमान बन गया।।
जन्नत ज़मीन का था ये कश्मीर ‘कल्प’ का।
किसकी नज़र लगी इसे श्मशान बन गया।।
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बह्र- मजारिअ मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
वज़न-मफ़ऊल फायलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
अरकान- 221. 2121. 1221. 212