ग़ज़ल।दग़ा देने मुहब्बत के बहाने लोग बैठे है ।
================ग़ज़ल=================
दुनियां के रिवाजों को भुलाने लोग बैठे है ।
नये ज़ख़्मो को देखो फ़िर दुखाने लोग बैठे है ।
ढहा रिश्तों कि दीवारें वफ़ा की खा रहें क़समें ।
जुबां मे ख़ंजरों को ले पुराने लोग बैठे है ।
बिकाऊँ हूं नही फिर भी बिका महसूस करता हूं ।
ख़ुदा की भी यहाँ क़ीमत लगाने लोग बैठे है ।
भरोसा उठ गया जबसे यहां हैवानियत बरपी ।
भरे आँखों मे आंसू को छिपाने लोग बैठे ।
नतीज़े आ रहे बेशक़ रुआँसा आदमी मिलता ।
सज़ा अपनी नफ़ासत का चुकाने लोग बैठे है ।
रहेगा ग़र यही मंज़र बचेगा आदिमा हरसूं ।
अभी से ग़मभरे किस्से सुनाने लोग बैठे हैं ।
कहां तक मै लिखू रकमिश कमीनी दास्ताँ इनकी ।
दग़ा देने मुहब्बत के बहाने लोग बैठे है ।
रकमिश सुल्तानपुरी