** ग़दर **
“””…#ग़दर..”””
जी हाँ यह 2001 कि बात है जब.. “ग़दर”..फ़िल्म रिलीज़ हुई और लोग बेशब्री से इंतेज़ार कर रहे थे कि जल्दी से इसकी कैसेट बाज़ार में आजाये क्योंकि सिनेमाघरों में जाने का समय कहाँ था और पैसे भी उतने नही थे और तो और जो आनंद हमारे गाँव के पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर देखने से मिलती वो सिनेमाघरों में कहाँ ?..आख़िर फ़िल्म की कैसेट्स बाज़ार तक आ ही गई सब पाँच-पाँच रुपए इकट्ठा करने लगे ..सीडी और बैटरी के लिए ताकि लाइट जब चली जाए तो बैटरी से जोड़ दिया जाएगा। गाँव में किसी के घर से टीवी की व्यवस्था हो गयी ।वो समय भी अजीब था एक ,दो ही घरों में टीवी और लोग अधिक थे पर इस बदलते दौर में एक घर मे ही पाँच टीवी है शायद अब वो देखने वाले कहीं ग़ुम हो गए। मेरा घर पीपल के पेड़ से एकदम 5 कदम पर था इसलिए फ़िल्म की वो सब सामग्रियां लाकर मेरे घर रख दिया गया कि शाम को सात बजे से फ़िल्म देखने का कार्य प्रारम्भ होगा। इधर सारे लोग घर का काम जल्दी-जल्दी निपटा रहे थे क्योंकि सात बजने में देर नही थी।
“घर आजा परदेशी की तेरी मेरी एक ज़िन्दड़ी”………
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जैसे ही इस गाने की आवाज़ कानों तक पहुँची की सब अपनी बोरिया, चटाई, कुर्सी, चारपाई इत्यादि बैठने की जो भी सामग्रियां थी उठाकर उसे दौड़ने लगे। मै घबरा गई क्योंकि मुझे फ़िल्म का ख़्याल बिलकूल नहीं आया मुझे लगा कि कोई घटना तो नही घटित हो गयी क्योंकि ‘जून ‘ का महीना था और प्रायः आग लग जाती थी इसलिए डर बना रहता था। कुछ समय बाद मेरे गाँव के सभी मित्रगण लेने आये तब याद आया कि हां आज फ़िल्म देखनी है और पाँच रुपये हमने भी दिए थे।
हम भी अपनी चटाई लिए और चल पड़े इतने में देखा कि जहाँ मेरा स्थान है वहाँ कोई और बैठ गया हैं ।जगह तो बहुत थी पर मुझे आगे बैठने की आदत थी चाहे वो क्लास का फर्स्ट बैंच हो या नाटकों में बैठे हुए लोगों की प्रथम पंक्तियाँ उसमें एक जगह तो इस शाहजादी की हमेशा रहती थी । मैं दो मिनट तक खड़ी सोंचती रही क्या करूँ जाऊं या यहीं बैठ जाऊं फ़िर समय विलम्ब करने से अच्छा है जाऊँ देखूँ कौन बैठा है।अब लाइन में बुजुर्ग बाबा लोग थे उनसे तो कभी लड़ाई नही कर सकती अब देखने लगी मेरे उम्र का कौन है तब तक मेरी नज़र मेरे उम्र के लोगों पर गयी जो मेरे सहपाठी थे अब उनसे क्या डरना गयी पास और बोली ऐ…. तू यहाँ कैसे बैठ गया यह मेरी जगह हैं यह सुनते ही वह गुसा हुआ पर कुछ बोला नहीं मैने पुनः अपनी बात को दुहराया इस पर वो बोल पड़ा ये तेरा क्लासरूम नहीं और मैं पहले से आकर बैठा हूँ उसकी बातों से मेरे कानों तक जूँ भी न रेंगते मैं अड़ी रही अपनी बातों पर ।आख़िर वो मुझे घूरते हुए मेरे पिछे जा बैठा उसे देखकर थोड़ी मुस्कुराई की हट गया फिर बैठ गयी।
फ़िल्म स्टार्ट हो चुकी थी सब एक टक लगाए देख रहे थे।अब देखते देखते हिन्दू और मुस्लिम भाई लोग में जंग छिड़ गई । वो ..सनी देओल..का डायलॉग ..हिंदुस्तान जिंदा बाद ..सुनकर मन एकदम गदगद हो उठता पर जो पास मित्र बैठा था वो मुस्लिम था घूरने लगता ,उस समय हमें ये कहाँ ज्ञात था कि हिन्दू क्या हैं मुस्लिम क्या वो तो स्कूल में नारे लगाए जाते ..हिन्दुस्तान जिंदाबाद तो इतना मालूम था कि हम हिन्दू हैं और हमारा देश हिंदुस्तान है।
पर उसके घूरने से क्या मेरा काम ज़ारी रहता लोग कुछ भी सोचें कुछ भी बोले।
देखते देखते ..अचानक “अमरीश पुरिया” नारा लगाया ..पाकिस्तान जिंदाबाद..और तो और सनी देओल से भी लगवाया। इस पर मेरे मित्र इतरा उठे वो यह भूल गए कि किसके पास बैठे है ।उसकी ख़ुशी देखते ही मैंने अपनी “ग़दर” स्टार्ट कर दिया और उसे हर बार इंगित कर रही थी कि इस बार ख़ुश हुए तो सोच लेना मेरा घर यहीं है तुम थोड़ी दूर के हो।यह कहकर न जाने कितनी बार धमकियां दे रही थी । इससे पता चलता था कि मैं हिन्दू हूँ और वो मुस्लिम पर यह बात बस फ़िल्म तक सिमित थी । मेरी नज़र में बस वो मित्र था ।जाती, धर्म का पता तो बड़े होकर समझे ,मज़हब का बंटवारा बड़े होकर किये। यह लड़ाई बस कुछ समय की थी मेरे धमकियों का खौफ़ कुछ इस तरह से था कि इस बार उसने.. पाकिस्तान जिंदाबाद पर एक बार भी ख़ुशी ज़ाहिर न किया क्योंकि मैने बताया था उसे, कि हमारे विद्यालय में कौन नारे लगाए जाते हैं और उसे यह स्वीकार करना पड़ा।
उस ग़दर से बड़ी ग़दर हमारी थी जो फ़िल्म के ख़त्म होने तक चली बीच बीच मे डाट पड़ने पर थोड़ी ख़ामोश हो जाती पर ज़्यादा देर तक मुझसे चुप रहकर बैठा नही जाता। आख़िरकार जीत हमारी हुई सब लोग बहुत ख़ुश नज़र रहे थे वे अपनी ख़ुशियाँ ऐसे ज़ाहिर कर रहे थे मानो देश को अभी अभी आज़ादी मिली हो सब अपने अपने घर की ओर प्रस्थान करने लगे मैं भी अपने दोस्तों से शुभ रात्रि बोल कर वापिस घर की तरफ बढ़ गयी ।
वह लास्ट फ़िल्म थी जो उस पीपल के पेड़ के नीचे चली उसके बाद ना वो दोस्त आये नाही कोई फ़िल्म चली।
मेरे सारे मित्र बड़े तो हो गए पर इस बात को लेकर अभी तक चिढ़ाते ।फ़र्क सिर्फ इतना है उस समय मैं उन्हें मारती, गालियाँ देती, लड़ाई करती पर आज जब भी चिढ़ाते बस मुस्कुरा देती हूँ।।
शायद मैं बड़ी हो गयी,मेरी आज़ादी पुनः गुलामी की तरफ़ बढ़ गयी ।नवाबों की तरह जीना तो आज भी जारी है पर संस्कार की कुछ बेड़ियों ने पावों को जकड़ लिए हैं ।हम दुनियादारी को समझ बैठे है,हम बड़े छोटे का पाठ पढ़ चुके हैं।
वो बिते हुए पल अब कभी वापिस नही आएंगे।
#स्वरचित…. #शिल्पी सिंह
बलिया (उ.प्र.)