ख़ार नफ़रत के क्यूँ उगाते हो
ख़ार नफ़रत के क्यूँ उगाते हो
बस्तियाँ बेवज़ह जलाते हो
खोलकर ज़ुल्फ़ यूँ चले आये
बिजलियाँ सब पे क्यों गिराते हो
रोज़ मिलते हो जब हक़ीक़त में
ख़्वाब में आप क्यों सताते हो
सबसे कहते हो हमसे रंजिश है
हमसे फिर क्यूँ नज़र मिलाते हो
जबकि नादान है हमारा दिल
क्यूँ इसे खामखां रुलाते हो
तीरगी से न दोस्ती अच्छी
क्यूँ न दीपक अभी जलाते हो
नाव-पतवार छोड़कर असली
नाव काग़ज़ की क्यों चलाते हो
इक शिकायत है आपसे ‘आनन्द’
सच को दुनिया से क्यों छुपाते हो
– डॉ आनन्द किशोर