ख़त
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खतों के न रहे नामोनिशान
बस रह गए रह कर मेहमान
जब किसी की आती थी याद
चिट्ठी देख आ जाती मुस्कान
भावों का जब आता उफान
शब्द रूपी खुल जाती जुबान
जब माही चला जाता परदेश
बस चिट्ठियाँ ही थी दरमियान
जान से ज्यादा होती संभाल
खतों से जैसे भरी हो दुकान
चिट्ठी का गर फटा हो कोना
समझते हो गया हो नुकसान
बेसहारों का बन जाती सहारा
मनसीरत दो दिन का मेहमान
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)