क़ुदऱत का क़रिश्म़ा
तम़न्ना की थी ज़िंदगी हो गुलश़न- ए- बहार सी।
पर मय़स्स़र हुई ज़िंदगी ख़िज़ाँ और ख़ार सी।
आरज़ू थी ग़र सपने सच हो जाएं।
अपनी जुस्त़जू की मंज़िल हम पा जाएं।
पर क़ुदऱत ने क़रिश्म़ा कुछ ऐसा दिखाया।
जो हमें ख्व़ाबों के अर्श़ से हक़ीक़त की ज़मीं पर ले आया।