क़ीमत……
जो घर -घर घूमने वाला आवारा समझा हैं मुझे,
क्या यही कीमत थी मेरे विश्वास की….
जो चौराहे पर खड़ा कर मुर्ख समझा हैं मुझे,
क्या यही कीमत थी मेरे लफ्जो की…
इस आवारगी की मूर्खता को पहचाने की गलती कर, मज़ाक बनाया हैं मेरा,
जो हर तेरे जिक्र की फ़िक्र की थी मेने, शायद इस ग़लती की यही क़ीमत थी मेरी खुद की….
–सीरवी प्रकाश पंवार