हौसला
विहंग एक उड़ा नभ में, दूर तक न तरु की छाया थी,
धूप घनी थी राह कठिन थी,संघर्षो की सतत माया थी।।
फिर भी वह विहंग रुका न थका, अविरल वह उड़ता ही गया।
अचानक मौसम ने बदला रूप, घनघौर तिमिर फैला क्षितिज पर, अब न रही थी धूप। ।
अन्धकार को देख वह विहंग कुछ सकुचाया, अन्धकार विकराल बना , छोटी सी थी उसकी काया।।
किंचित उसके मन में भय आया,उस पर घिरने लगा तम का साया।।
पंख अब उसके थकने लगे, हौसले अब उसके गिरने लगे,
भान हुआ की हार निश्चित ही निकट है, परिस्तिथियाँ और भी विकट है ।।
अचानक उसमे एक ऊर्जा का संचार हुआ,
स्वयं को भर एक आशा से, उसने प्रतिपल अन्धकार का प्रतिकार किया।।
घनघोर तिमिर भी उस विहंग के आगे आगे हार गया,
चीर के सीना वो अन्धकार के पार गया।।