Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
23 Dec 2023 · 12 min read

‘पितृ देवो भव’ कि स्मृति में दो शब्द………….

आप ज्ञानवान, बुद्धिमान, विवेकवान, सामर्थवान और धनवान ही क्यों न हो, अपने से बड़ों को जो आदर सम्मान नहीं देता उसके जैसा निकृष्ट व्यक्ति कोई नहीं है। साथ ही आदर देते हुए भी बड़ों की गलती को दुहराना भी इसी श्रेणी की नीचता और निंदनीय कार्य और व्यवहार को दर्शाता है। अभिमान स्वजनों के समक्ष कभी नहीं किया जाता? अगर जीवन में आप एक भी अपराध नहीं किए है, तब भी अपने से किसी बड़ों व बुजुर्गों की भुल और गलती को कभी मत कहिए और अनेकों बार किए है तो कहना ही क्या। आपको मालुम नहीं की आप अपने माता, पिता, स्वजनों और समाज के लोगों को मन, वचन और कर्म से कई बार परोक्ष या अपरोक्ष रुप से आघात पहुँचाए है, और आप चाहते है या कामना करते है कि मेरा जीवन सुख, शांति और आनंद से व्यतित होगा तो यह आपकी भूल है। ऐसा कभी नहीं हो सकता है। जब भी आपकी मूर्खता पर बड़े बुजुर्गों की अनुभव जन्य आँखें प्रेमपूर्ण निर्विकार भाव से देखती है, समझती और जानती भी है कि आज नहीं तो कल आप अपनी मूर्खता पर पछ्ताएंगे और उसके बाद निराश होगें। क्योंकि अभिमान से भरी संतानों की बातों और कार्यों में वे हस्तक्षेप नहीं करना चाहती, क्योंकि, अगर कोई सलाह भी देती है तो उसकी अहमियत नहीं रहेगी। यह जान कर और समझ कर चुप – चाप निर्विकार भाव से देखती और सुनती रहती है।

मेरे लिए पिता शब्द की कोई परिभाषा नहीं है, क्योंकि मेरे पास शब्द ही नहीं है जिसे मैं सही तरीके से संपूर्ण रुप से पिता को परिभाषित कर सकूं। फिर भी एक छोटी सी कोशिश है जिससे स्मृति में विद्यमान सुखद अनुभवों को अंकित कर सकूं। “पिता” शब्द ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में उत्पन्न करने वाले की अपेक्षा शिशु के रक्षक के अर्थ में अधिक व्यवहृत हुआ है। ऋग्वेद में यह दयालु एवं भले अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। अतएव अग्नि की तुलना पिता से की गई है। पिता अपनी गोद में ले जाता है, तथा अग्नि की गोद में रखता है। शिशु पिता के वस्त्रों को खींचकर उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है, उसका आनन्दपूर्वक स्वागत करता है। यह कहना कठिन है कि किस सीमा तक पुत्र पिता की अधीनता में रहता था एवं यह अधीनता कब तक रहती थी। संतान के प्रति मोह और ममता के कारण ही पिता की वात्सल्य – धारा सतत प्रवाहित होती रहती है। पिता का आंसुओं से भिंगा चेहरा बच्चे की सफलता तथा खुशियों का परिणाम होता है। पिता द्वारा बच्चों को रोकना, टोकना, उलाहना देना, सलाह देना, गुस्सा करना, विरोध करना और मना करना यह छुपा हुआ पिता का प्रेम ही है अपने बच्चों के लिए। “पिता में श्रद्धा, माँ में टान, वह लड़का हो साम्य प्राण” अर्थात हमारा अनन्य श्रद्धा, निष्ठा, अनुराग, खिंचाव, सेवाभाव और अपनत्व माता – पिता में अगर है, तो जीवन में आगे बढ़नें का मार्ग सदैव प्रशस्त होगा, यह निश्चित है। आजीवन पिता कठिन परिश्रम करता रहता है कि मेरे बच्चे कैसे अच्छे से रहें, पढ़े – लिखें, और समाज में अपना एक अलग पहचान बनाएं, जिससे उनके जीवन में कभी भी दुख की बदली ना आ पाए। इसका अहसास हम सब को तब होता है, जब हम बच्चे बड़े होकर पिता बन जाते है। लेकिन यह व्यक्ति का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उस समय पिता का साया हमारे उपर नहीं रहता है, बस अफसोस, आत्मग्लानि और पश्चाताप की अंतर्वेदना के सिवा हमारे पास कुछ नहीं रहता है। वे लोग धन्य है, जिनके उपर पिता का साया है आनंद लेने के लिए, अपनी भुल और पश्चाताप को सुधारने के लिए। संतान माता – पिता का प्रतिकृति या अंश होता है, स्वभाव, व्यवहार, आदत, चाल ढ़ाल, शरीर की बनावट, रुप या रंग इत्यादि बहुत कुछ मिलता है। हमें भले ही पता न चले, लेकिन समाज के लोग और स्वजन स्वत: ही पहचान जाते हैं। अनेकों बार इसका एहसास सभी को हुआ होगा, फिर हम अपने जन्मदाता और जीवनदाता से विमूख कैसे हो सकते है? जानवरों में भी समाजिक और परिवारिक संबंध कायम रहता है तो हम मनुष्य होकर इसे क्यों नहीं निभाते है? क्या ठोकर खाकर ही व्यक्ति को अहसास होता है। देखते – देखते ही हमारी उम्र ढ़ल जाती है, बाद में बचता कुछ नहीं है। इसलिए समाज और परिवार में संस्कार और व्यवहार की ऐसी लकीर नहीं खिंचना चाहिए जिसका अनुसरण कर संतति अपने ही भुगत भोगी बने।

मैंने ऐसे बहुत सी संतानों को देखा है, जिन्होंने साधारण (जो आर्थिक रुप से संपन्न नहीं थे) पिता के रहते हुए दिन दुना और रात चौगुना विकास किए, चाहे वह कोई भी क्षेत्र क्यों ना हो, लेकिन पिता की मृत्यु के उपरांत ही सारी संपन्नता और वैभव धुल में मिल गई। कुछ संतान संतति तो ऐसे भी थे जो संपन्नता और वैभव की मिशाल थे और चाहते थे कि मैं आर्थिक और शारीरिक रुप से पिता की सेवा करुँ? लेकिन स्वभिमानी पिता कुछ नहीं कहते थे और ना ही कोई आर्थिक मदद ही लेते थे, वे केवल देना ही जानते थे। पिता का अपना जीवन बहुत ही सरल, सहज और समान्य होता था, इसलिए समृद्ध संतानें अभिमान के कारण मन मसोस कर रह जाती थी। कुछ लोगों को छोड़कर, जिन्होंने अपने पिता को नहीं देखा या संग लाभ नहीं किया किसी कारण वश, शेष सभी संतानें अपने पिता की मनोहर स्मृतियों के साथ जुड़े हुए है, और अज्ञानवश क्षम्य या अक्षम्य अनेकों अपराध जीवन में किए होंगे, लेकिन पिता की बहुत थोड़ी सी डांट – फटकार के बाद करुणा की अनवरत वर्षा होती रहती थी। पिता के साथ बिताए हुए क्षण उनके नहीं रहने पर आंखों के दोनों कोरों को भिंगोती रह्ती है, जो अटल सत्य है। पिता है तो जीवन में वह सब कुछ है, जो हम चाह सकते है या सपने देख सकते है, वह सब मिल सकता है। अपने जीवन का बलिदान देकर भी संतान की इच्छाओं को पुरा करना केवल पिता ही कर सकते हैं।

पिता हमारे जीवन है, रोटी है, कपड़ा है, मकान है, पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है, सम्बल है, शक्ति है, सृष्टि निर्माण की अभिव्यक्ति है, अँगुली पकड़ कर चलने वाले बच्चे का सहारा है, नन्हे से परिंदे का बड़ा आसमान है, अप्रदर्शित अनंत प्यार है और धौंस से चलाने वाला प्रेम का प्रशासन है। सौभाग्यशाली है वह संतान, जिन्होंने पिता की कृपा – धारा के अमृत कलश का पान किया है, और धन्य है वह संतान और उसका जीवन जो पिता की सेवा एवं आज्ञा – पालन में अपना सर्वस्व जीवन न्यौछावर कर दिया हैं। मेरे अनुभव में पिता देह मात्र नहीं हैं; वह प्रेरणा हैं, भाव हैं, सुरक्षा है, उल्लास है, आनंद है, आशा है, होठों की स्मित मुस्कान है, जीवन रक्षक है, त्याग और बलिदान की प्रतिमूर्ति है। जो जीवन की कड़ी तपती धूप में उनकी स्मृति शीतल – मंद बयार का आनंद देती है। संतान चाहे अपने जीवन में कुछ भी कर ले, वह पितृ – ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। संतानें केवल पिता की आज्ञा पालन कर और प्रसन्नता का कारण बनकर ही अपना जीवन सफल कर सकती है।

आधी रात को जगकर पत्नी के साथ बच्चों के मल मूत्र द्वारा किए गंदे वस्त्र को बदलना और बच्चों के रोने पर उन्हें उठा कर घूमना तथा उसे चुप कराना और पत्नी को कहना कि तू सो जा मैं इसे सुला दूँगा तथा अस्वस्थ होने पर घर और अस्पताल में रात भर जागना। जो कभी अपने लिए पंक्ति में कभी खड़ा नहीं हुआ था, वह बच्चे के स्कूल में दाखिले के समय फॉर्म लेने हेतु पूरी ईमानदारी से सुबह से शाम तक लाईन में खड़ा होता है। जिसे सुबह उठाते साक्षात कुम्भकरण की याद आती थी और वो अब रात को बार बार उठ कर ये देखने लगता है की मेरा हाथ या पैर कहीं नन्हें से बच्चे के ऊपर तो नहीं आ गया एवम् सोने में पूरी सावधानी बरतने लगता है। स्वंय ताकतवर और योद्धा होते हुए भी बच्चे के साथ झूठ – मूठ की लड़ाई में बच्चे की नाजुक थप्पड़ से जमीन पर गिरने लगता है। खुद भले ही कम पढ़ा लिखा हो या अनपढ़ हो, अपने कार्यों को निपटाकर घर आकर बच्चों को “पढ़ाई बराबर करना, होमवर्क पूरा किया या नहीं” बड़ी ही गंभीरता से कहता है, और उनकी भविष्य की चिंता करता है। खुद की मेहनत पर ऐश करने वाला, अचानक बच्चों के आने वाले कल के लिए आज हालात से समझौता करने लगता है, और उनके भविष्य के लिए पैसा बचाने लगता है। ऑफिस में बॉस, कईयों को आदेश देने वाला अधिकारी, स्कूल की पेरेंट्स मीटिंग में क्लास टीचर के सामने डरा सहमा सा चुपचाप शिक्षक के हर निर्देशों को ध्यान से सुनने लगता है। खुद की पदोन्नति से भी ज्यादा, बच्चे की स्कूल की यूनिट टेस्ट की ज्यादा चिंता करने लगता है। हमेशा अच्छी – अच्छी गाडियों में घुमने वाला, जब बच्चे की सायकल की सीट पकड़ कर उसके पीछे भागने में खुश होने लगता है। स्वंय अगणित भूलें करने वाला, पर बच्चे भूलें ना करें, इसलिये उन्हें रोकने तथा टोकने की शुरुआत करता है। बच्चों को कॉलेज में प्रवेश के लिए, किसी भी तरह पैसे जमा करता है और ऊँची पहुँच वाले व्यक्ति के सामने दोनों हाथ जोड़े खड़ा रहता है कि हमारे बच्चे का दाखिला हो जाए। बच्चों द्वारा कहा गया “अब ज़माना बदल गया है, पापा आपको कुछ मालूम नहीं” ये शब्द खुद ने कभी अपने पिता को कहा है, वह याद करके मन ही मन बाबूजी को याद कर माफी माँगने लगता है और पश्चाताप करता है। बच्चों को बड़ा करते – करते कब बालों में सफेदी आ जाती है इस पर ध्यान ही नहीं जाता, और जब ध्यान आता है तब उसका कोई अर्थ नहीं रहता है, क्योंकि बुढ़ापा आ गया होता है। यह प्रत्येक कार्य पिता ही करता है, इसके अलावा कौन कर सकता है?

वर्तमान वैश्विक उदारीकरण अर्थव्यवस्था ने परिवारिक और सामाजिक व्यवस्था को छिन्न –भिन्न करते हुए सभी लोगों के साथ युवाओं के मन में यह सोच भर दी है कि अपने जीवन के निर्णय लेने का उन्हें पूर्ण अधिकार है, और वे अपनी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र हैं। पिता उनकी अविवेकपूर्ण और अनुभव – शून्य त्रुटियों को रोकने के भी अधिकारी नहीं हैं, और स्वंय को असक्षम पाते है। इस अविचारित और अविवेकपूर्ण सोच ने पारिवारिक स्नेह – सूत्रों के बंधन को शिथिल कर दिया है, जिसका परिणाम हम सभी भुगत रहे हैं और भविष्य में भी भुगतने की आशंका है। परिवार के मुखिया पिता जो हर समय, अवस्था और परिस्थिति में एक मजबुत स्तंभ सा दिखाई पड़ते थे, उनकी गरिमा को हमने आहत किया है। वर्तमान समय में जो भी युवा अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर पिता की इच्छा, अनिच्छा, आशा, आदेश, भरोसा और आज्ञा का अनादर करता है। दुर्भाग्य है इस तपोभूमि का जहाँ संतान की इस मूल्य विमुखता में वर्तमान सामाजिक व्यवस्था भी उसी के साथ है। आज वयस्कों के निर्णय के समक्ष वृद्ध पिताओं के सपनों का, उनकी भावनाओं का कोई मोल नहीं रह गया है, जो बहुत ही दुखद है। कृतघ्नता की पराकाष्ठा है, और मानवीय गरिमा के विरुद्ध है। भारतीय समाज में परिवार का आधार पारस्परिक भावों – इच्छाओं का आदर है। बढ़ती हुई मानसिक विकृतियां इस आधार को क्षतिग्रस्त कर रही हैं और इसका दुष्परिणाम भोगने के लिए पितृ – पद विवश है, क्योंकि एक ओर वह शारीरिक स्तर पर दुर्बल और शिथिलांग हो रहा होता है तो दूसरी ओर ममत्व के अंधे बंधन उसे आत्मिक स्तर पर आहत करते हुए उसकी शेष जिजीविषा ही समाप्त कर देते हैं।

किसी दार्शनिक ने कहा है कि “जिसने इस संसार में मां-बाप से संबंध श्रद्धा का नहीं बना लिया, उसके पास वह सीढ़ी ही नहीं है, उस ऊपर के पिता की तरफ चढ़ने की। उसके पास मौलिक अनुभव नहीं है, जिसका वह बीज बन जाए और जिसका वह वृक्ष हो सके। उसके पास पहली कुंजी ही नहीं है”। इसलिए भारतीय वाङ्ग्मय में ‘शिव’ को पिता कहा गया है। इस लोक में पिता ही शिव है। वह संतान के सुख और कल्याण के लिए हर संभव प्रयत्न करता है। अपने प्राण देकर भी संतान की रक्षा के निमित्त सतत सन्नद्ध रहता है। धर्मशास्त्र – साहित्य और लोक-जीवन में समुचित संगति के कारण भारतीय समाज में पितृ – संतान संबंध सदैव मधुर रहे। कभी भी और कहीं भी ‘जनरेशन गैप’ जैसी कल्पित और कटु धारणाओं ने पारिवारिक – जीवन को विषाक्त नहीं किया। पितृ – पद स्नेह, दुलार और आशीष का पर्याय रहा है, तो संतान आज्ञाकारिता तथा सेवा – भाव की साधना रही है। संवेदना – समृद्ध पारिवारिक – जीवन में पद – मर्यादाएं स्नेह और आदर से इस प्रकार अनुशासित रहीं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता अथवा एकाकी – निर्णय का विचार भी अस्तित्व में नहीं आया।

आज इन मानव-विरोधी विकट-भयावह स्थितियों से निपटने का एकमात्र उपाय अपने पारंपरिक संस्कृतियों, मानवीय मूल्यों और आदर्शों को पहचानना होगा, अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं की ओर लौटना होगा। मेरी कामना है कि हम अपने वैदिक निर्देश ‘पितृ देवो भव’ की ओर पुनः वापस आएं और हमारे परिवारों में पिता अधिक सुखी, अधिक संतुष्ट हों ताकि उनका आशीर्वाद संतान के जीवन को सुखमय, आनंदमय और शांतिमय बनाए। बूढ़े – असहाय पिता की संपत्ति पर अधिकार कर उन्हें वृद्धाश्रमों में भेजा जाना महापाप है। सेवाओं से निवृत्त वृद्धों की भविष्य – निधि – राशि, पेंशन आदि पर तो संतानों ने अपने अधिकार में ले लिया है, किंतु उनकी देखभाल, दवाई आदि पर होने वाले व्यय के वहन को अस्वीकार कर दिया है, जो संतान संत्ततियों की निचता को दर्शाता है। क्या बच्चों में संवेदन हीनता घर कर गई है? जिससे अपने पिता की देखभाल नहीं हो रही है? दैहिक, परिवारिक और समाजिक संबंध का कोई मूल्य नहीं रह गया है? भविष्य में सभी को पिता बनना है, परिवारिक मूल्यों को खत्म मत करिए नहीं तो आने वाली पीढ़ी आपके साथ भी वही व्यवहार करेगी जो आप अपने पिता के साथ कर रहे हैं, यह निश्चित है। जहाँ पर कार्य करते हैं, वहाँ पिता के समतुल्य उम्र वाले बॉस के साथ आपका व्यवहार मृदुल, आज्ञाकारी और श्रद्धा से भरा हुआ है तो अपने पिता के साथ क्यों नहीं?

जिनके उपर पिता का साया नहीं है वे जानते है कि पिता का जीवन में क्या महत्व है। पिता की बुढ़ी आँखे हमेशा दरवाजे के बाहर देखती है और कान सदैव कॉल बेल की अवाज सुनकर यह आशा करती है कि मेरी संतानें अपनी कार्यों को करके कब वापस लौट रही है। जब तक घर पर बच्चे आ नहीं जाते तब तक पिता संतुष्ट नहीं होते। इसको कैसे भुला जा सकता है जो हर पग – पग पर याद आता है, हर सीख में, व्यवहार की बातों में पिता की कही बातों को कैसे भुलाया जा सकता है? जीवन के अनमोल और अदभूत पलों को कैसे विस्मृत किया जा सकता है जो मीठी याद बनकर हमारे खुनों में दौड़ रहा है। हमारी हर सांस में बसी उस सुगंध को कैसे अलग किया जा सकता है। साहस और धैर्य के पर्वत को कैसे हटाया जा सकता है जो हमारे अंदर पिता द्वारा भरा हुआ है। आज दुख के क्षणों में कंधे पर हाथ रख कर ढाढ़स बढ़ाने वाला स्नेह युक्त हाथों का स्पर्श कहाँ है, जो पल भर में केवल “मैं जिंदा हूँ अभी” कहकर होठों पर मुस्कान बिखेर देता था। मैं आज भी जब किसी मुसीबत में होता हूँ तो आंखें बंद कर लेता हूँ अपनी, और पिता को अपने सामने खडा मुस्कराता हुआ पाता हूँ, मुझे निहारते हुऐ, मुझसे वही शब्द कहते हुऐ – “मैं हूँ ना तुम्हारे साथ” ! माता – पिता की उपस्थिति में और सेवा में सब पदार्थ अच्छे लगते है। पिता की छत्र – छाया हो और माता का अतुलित स्नेह हो वह जीवन की सबसे आनंदमय, सुखमय और शांतिमय समय होता है, चाहे जितना भी कष्ट जीवन में क्यों ना हो? माता – पिता को छोड़कर मिला हुआ धन या राज्य का कोई मूल्य नहीं है। किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन में दो लोगों का ख्याल रखना बहुत आवश्यक हैं, “जिसमें एक पिता जिसने हमारी जीत के लिए सब कुछ हार गया है और दुसरी माँ जिसको हमने हर दुःख में पुकारे हो”।

एक छोटी सी कहानी है “जिसमें पिता और पुत्री कहीं से आ रहे थे, तभी रास्ते में वर्षा के कारण सुखी नदी में बाढ़ आ गया था। नदी को पार करते समय पिता ने पुत्री से कहा कि तुम मेरा हाथ पकड़ लो नहीं तो पानी में बह जाओगी, इसपर पुत्री ने कहा कि पिताजी आप मेरा हाथ पकड़ लें, तब पिता ने पुत्री से कहा कि बात एक ही है, चाहे तुम मेरा हाथ पकड़ो या मैं तुम्हारा? पुत्री ने कहा कि नहीं पिताजी बात एक नहीं है? अगर मैं खतरे में पड़ जाउंगी तो हो सकता है कि मैं आपका हाथ छोड़ दुँ, लेकिन आप जब मेरा हाथ पकड़े रहेंगे तो मुझे बचा ही लेगें यह निश्चित है”। बहुत सी संतानें हैं जो अपने माता और पिता की भावनाओं को भली भांति समझती है, तथा वैसे ही कार्य करती है जो उनको अच्छा लगे। यही होना भी चाहिए जिससे समाज और परिवार में स्नेह और प्रेम का बंधन बरकरार रहे। नहीं तो इसके टुटते ही सारा समाज और परिवार बिखर जाता है।

************

Language: Hindi
Tag: लेख
2 Likes · 1 Comment · 126 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Awadhesh Kumar Singh
View all
You may also like:
लोग आते हैं दिल के अंदर मसीहा बनकर
लोग आते हैं दिल के अंदर मसीहा बनकर
कवि दीपक बवेजा
*हुआ देश आजाद तिरंगा, लहर-लहर लहराता (देशभक्ति गीत)*
*हुआ देश आजाद तिरंगा, लहर-लहर लहराता (देशभक्ति गीत)*
Ravi Prakash
हिसाब-किताब / मुसाफ़िर बैठा
हिसाब-किताब / मुसाफ़िर बैठा
Dr MusafiR BaithA
घमण्ड बता देता है पैसा कितना है
घमण्ड बता देता है पैसा कितना है
Ranjeet kumar patre
दो शे'र
दो शे'र
डॉक्टर वासिफ़ काज़ी
छोड़ गया था ना तू, तो अब क्यू आया है
छोड़ गया था ना तू, तो अब क्यू आया है
Kumar lalit
मेरी जिंदगी में जख्म लिखे हैं बहुत
मेरी जिंदगी में जख्म लिखे हैं बहुत
Dr. Man Mohan Krishna
ज़िंदगी आईने के
ज़िंदगी आईने के
Dr fauzia Naseem shad
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
DR ARUN KUMAR SHASTRI
ईद की दिली मुबारक बाद
ईद की दिली मुबारक बाद
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
जीवन की धूल ..
जीवन की धूल ..
Shubham Pandey (S P)
भौतिकता
भौतिकता
लक्ष्मी सिंह
*मनायेंगे स्वतंत्रता दिवस*
*मनायेंगे स्वतंत्रता दिवस*
सुरेन्द्र शर्मा 'शिव'
या तो लाल होगा या उजले में लपेटे जाओगे
या तो लाल होगा या उजले में लपेटे जाओगे
Keshav kishor Kumar
गीतिका
गीतिका "बचाने कौन आएगा"
लक्ष्मीकान्त शर्मा 'रुद्र'
मीलों की नहीं, जन्मों की दूरियां हैं, तेरे मेरे बीच।
मीलों की नहीं, जन्मों की दूरियां हैं, तेरे मेरे बीच।
Manisha Manjari
■ आज का शेर
■ आज का शेर
*Author प्रणय प्रभात*
दाना
दाना
Satish Srijan
3064.*पूर्णिका*
3064.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
विचार
विचार
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
पुष्पवाण साधे कभी, साधे कभी गुलेल।
पुष्पवाण साधे कभी, साधे कभी गुलेल।
डॉ.सीमा अग्रवाल
मैं और मेरी तन्हाई
मैं और मेरी तन्हाई
Suman (Aditi Angel 🧚🏻)
*यदि हम खास होते तो तेरे पास होते*
*यदि हम खास होते तो तेरे पास होते*
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
"कामना"
Dr. Kishan tandon kranti
दोहा
दोहा
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
जन्म हाथ नहीं, मृत्यु ज्ञात नहीं।
जन्म हाथ नहीं, मृत्यु ज्ञात नहीं।
Sanjay ' शून्य'
कृष्ण दामोदरं
कृष्ण दामोदरं
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
प्रभु की लीला प्रभु जाने, या जाने करतार l
प्रभु की लीला प्रभु जाने, या जाने करतार l
Shyamsingh Lodhi (Tejpuriya)
समर्पण.....
समर्पण.....
sushil sarna
सर्वोपरि है राष्ट्र
सर्वोपरि है राष्ट्र
Dr. Harvinder Singh Bakshi
Loading...