हो-ली अपनी होली
हो-ली अपनी होली
उद्धौ हो-ली अपनी होली।
शब्द-बाण से तिरिया बेधे,
बोल-बोल कर बोली।
हमको यह दो, हमको वह दो,
बोले बिटिया भोली।
हाय! हाट मैं जाऊँ कैसे?
खाली अपनी झोली।
झाल-मजीरा पीट रहे हैं,
झूम-झूम हम-जोली।
कहति कांति इस महँगाई में
ठठ्टा नहीं ठिठोली।
उद्धौ हो-ली अपनी होली।।
कविः
नन्दलाल सिंह ‘कांतिपति’
मो. 09919730863
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