हो तन मालिन जब फूलों का, दोषी भौंरा हो जाता है।
हो तन मालिन जब फूलों का, दोषी भौंरा हो जाता है।
और सुखों की, आस लिए जुगनू केवल पछताता है।
जब दीप बुझे दोषारोपित होने लगती है मंद पवन।
किंतु तब भी अंँधियारा है जब थक कर होती बंद नयन।
जीवन है समरांँगन तो फिर, समर क्षेत्र से क्यों डरना?
जग से लड़ना है सरल किंतु, है जटिल स्वयं से ही लड़ना!!
यह बात समझ में आए तो, सम्यक क्रांति को ज्वाल मिले!
यह ज्वाल अलौकिक हो तब तो, स्वर्णांकित ही भाल मिले!
इस आसमान में तन्हा हो यह ,सूर्य भले जलता है क्यों?
जो अलग दिखे दुनियांँ में वो ,सब के दिल में खलता है क्यों?
है बात विडंबित तथ्यों पर अस्तित्व बचाकर क्या होगा?
गर जीतो खुद को ही खुद से ,खुद को ही हराकर क्या होगा?
है नदी समाहित प्रश्नों में उत्तर अनंत जल धारा है।
है प्रेम सकल संगम तट मन, बाधाओं को अवधारा है।
जो हुए धर्म हित आयामी वो टीके शौर्य की गाथा में।
तब दिनकर भी धवल पुंँज मढ़ते हैं उनके माथा में।
निज दायित्वों को निर्वाहित करना है सरल नहीं तों पर।
जलते हैं दिनकर तब आती है किरण पुंँज इस भूमि पर।
धरती को धरती होने हेतु अरमान कुचलना पड़ता है।
पाप पुण्य सब धारण कर घूर्णन भी करना पड़ता है।
है सरल नहीं पालो सपना सर्वस्व समर्पण चाहेगा।
मन भी आलोचक हो नितांत, हरपल दर्पण दिखलाएगा।
हो भले हलाहल यह जीवन, या फिर चाहे संतत्पित हो।
किंतु सम्यक स्वर क्रांति ज्वाल,मन द्वंद हिन संकल्पित हो।
©®दीपक झा “रुद्रा”