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24 Jul 2016 · 1 min read

हो उजाला ज़रा दीप ही बार दो

मुड़ न जाएँ कदम ये बदी की तरफ
दोस्त जाना नहीं मतलबी की तरफ

फर्ज इनका यही धर्म उनका यही
आदमी को रखे आदमी की तरफ

आ गए फिर घने बादलों के सिरे
जगमगाती हुई चाँदनी की तरफ

भूल से ही सही उँगलियाँ उठ गईं
आइने सी खरी दोस्ती की तरफ

कितने मजबूर हैं वो कदम दोस्तों
बढ़ते ही जा रहे बे-बसी की तरफ

लौट आओ मेरे दोस्तों मान लो
कुछ न पाओगे तुम उस गली की तरफ

हो उजाला ज़रा दीप ही बार दो
झोपड़ी की तरफ तीरगी की तरफ

~ अशोक कुमार रक्ताले.

2 Likes · 3 Comments · 308 Views
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