हो अंधेरा कितना भी घना
हो अंधेरा कितना भी घना,
हमें रोक सकता नहीं,
चल पड़े जो कर्मठ,
तो राह उजला हो न हो
कोई फरक पड़ता नहीं है,
है रास्ता वीरान,
उबड-खाबड़,पत्थरों से भरा,
नंगे पाँव चल पड़े जो मतवाले हम,
पीड़ा जब दिल में हो तो,
शारीरिक का पता चलता नहीं,
हो अंधेरा कितना भी घना,
हमें रोक सकता नहीं,
समय का पहिया यथावत चलता,
ये कभी जब रुकता नहीं,
तो कैसे रुके कोई मतवाला,
जो समय की परवाह करता नहीं है! मंजिलों की दुश्वारियां दे जाती है भटकन पर जो स्थिर चित्त हो,
वो भटक सकता नहीं,
हो अन्धेरा कितना भी घना
हमें रोक सकता नहीं अनियमितताएं,अवधारणाएँ,अवरोध चलते निरंतर साथ साथ,
इनसे कब मनोबल गिरे
,निरंतर बढ़ने वालों के,
कहाँ ये गिराएगी,
ये अग्रसर पथिक सोच सकता नहीं,
हो अन्धेरा कितना भी घना
हमें रोक सकता नहीं!
पहाड़ सा होंसला,लोहे सा जिगर,
मन में आशाएँ,कितने हैं शस्त्र,
कितने तीर हमारी कमान में,
जिन्हे तोड़ कोई सकता नहीं
हो अंधेरा कितना भी घना
हमें रोक सकता नहीं!
कहाँ जानता हूँ मैं कि रुकना कहाँ है,
मंज़िल पाना है ऐसा तो सोचा नहीं,
बस निकल पड़ा हूँ हालातों पर क़ाबू पाने,
अब कोई मुझे टोक सकता नहीं,
हो अंधेरा कितना भी घना
हमें रोक सकता नहीं !