होली और यादें :-मोहित
फिर से होली आ गयी है ,
यादें मन में छा गयीं हैं ,
यादों का है क्या ठिकाना ,
इनका तो है आना जाना।
पर वो होली और थी जब ,
घर की घर में साथ थे सब ,
माँ के हाथों की मिठाई ,
मानो अमृत में डुबाई।
पिताजी का प्यार देना,
स्नेह से यूँ निहार देना ,
उनकी आँखों का मैं तारा ,
उनके प्राणों का सहारा।
आज घर से दूर हूँ मैं ,
दूर क्या मजबूर हूँ मैं ,
रंग होली के मुझे अब,
चुभते हैं काँटों से सब।
फिर से होली आ गयी है ,
यादें मन में छा गयीं हैं,
नींद से उनको जगाकर ,
रंग पापा को लगाकर।
माँ ने गुझिया छाने होंगे ,
और भी पकवाने होंगे ,
पर ख़ुशी होगी कहाँ से ,
मैं नहीं जो हूँ वहाँ पे।
पिताजी खाने बैठे होंगे ,
दिल तो उनके ऐंठे होंगे ,
मेरा प्यारा मालपुआ होगा ,
देखकर उनका मन चुआ होगा।
माँ भी रुंधे कंठ भरकर ,
बोली होंगी कुछ संभलकर ,
पानी क्यों आँखों में आये ?
जो की तुमने अब बहाये।
पिताजी फिर बोले होंगे ,
बोले क्या मन खोले होंगे ,
वह अगर जो साथ होता,
घर का मनो माथ होता।
तुमसे कहता ये बना माँ ,
तुमसे कहता वो बना माँ ,
तुम भी उसकी वाली करती ,
मेरी बातें पीछे धरती।
हाँ उमंगित मैं भी होता ,
हाँ तरंगित मैं भी होता ,
इसलिए आंखे भर आयीं ,
क्योंकि उसकी याद आयी।
फिर हुआ होगा कुछ ऐसा ,
होना था की जो न वैसा ,
माँ के आँखों के भी बादल ,
बरस गए होंगे फिर छल-छल।