होने को अब जीवन की है शाम।
होने को अब जीवन की है शाम।
पत्ते – पत्ते सूख रहे हैं
गिरने की अब बारी,
मधुमय डाली कर बैठी है
पतझड़ की तैयारी।
सावन के सब यत्न हुए नाकाम
होने को अब जीवन की है शाम।
फूल – फूल में बेचैनी है
पंखुड़ियाँ हैं आहत,
कली – कली बेजान पड़ी है
मंजर तक मर्माहत।
हरियाली के दिन अब हुए तमाम
होने को अब जीवन की है शाम।
पंख खोल खग उड़ने वाला
बाग छोड़, तज डेरा,
नीड़ न आया काम हमारे
जिस पर हक था मेरा।
दीवारों पर रह जाएगा नाम
होने को अब जीवन की है शाम।
भौंरों का गुंजार मौन है
कोयल की मृदु वाणी,
आँखों की दोनों कोरों में
भर-भर जाता पानी।
सूरज नभ से उतर रहा अविराम
होने को अब जीवन की है शाम।
सांसों के हैं तार टूटते
जरा खड़ी है द्वार,
मौत न जाने कब ले जाए
जीवन के उस पार।
जाना निश्चित छोड़ धरा सुरधाम
होने को अब जीवन की है शाम।
अनिल मिश्र प्रहरी।