ये क्या से क्या होती जा रही?
इंसानियत न जाने कैसे यहाँ, दो टूक होती जा रही।
धर्म पे चिल्लाती आडम्बरों पर, मूक होती जा रही।।
घूंघट की आड़ में और कभी, कहीं कहीं हिजाब में।
मर्यादा की हर सीमाओं में क्यों, चूक होती जा रही।।
मौके पर वेष टोली और, अदल बदल समाज को।
खादी खद्दरधारी के निशाने, अचूक होती जा रही।।
विष से भरे तीर जब से, चलने लगी हैं ज़बानों से।
लज़्ज़ा आँखो कि तब से ही, बन्दूक होती जा रही।।
मान और सम्मान की बोली, लगने लगी बाजार में।
हर शख्स का ईमान अब, सन्दूक होती जा रही।।
जान कर भगवान उनको, मूंद बैठे हैं आखों को।
सारी बुद्धिजीविता, कूप मण्डूक होती जा रही।।
न पूछो है कितना बड़ा, है वो कितना खानदानी।
दम्भ से अकड़े सर अच्छी, रसूख होती जा रही।।
सीख ले तू भी चिद्रूप, अभी भी समय गया नही।
मुफ्त कामचोरी कि नियत, सलूक होती जा रही।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित १६/०२/२०२२)