होती जब घमासान वर्षा की कहर
दुबक दुबक कर बैठे सब अपने घर,
होती जब घमासान वर्षा की कहर ।
समय समय पर बिजली कड़की,
शांत चित वाली धरती भी धड़की,
बादल गर्जना कर देता झिड़की,
बंद करो सब बच्चे खिड़की,
देखो बूंद गिरा फिर इधर-उधर
होती जब घमासान वर्षा की कहर ।
तृप्त हो रहा पत्ता पत्ता,
लोग निकलते ले कर छत्ता,
पानी भरती चली नदी, नाले, पोखर, खत्ता,
टर्र -टर्र मेंढक पाता अपनी सत्ता,
सूखा मैदान भी बना नहर,
होती जब घमासान वर्षा की कहर।
भींग गए सरसों, गेहूँ के बोरे जो थे मूंदे,
कृषक क्षण -क्षण अपने सिर को धूने,
क्या क्या थे निज घर आयोजन बूने ,
एक एक स्वप्न टूट रहा जो थे गूने,
हो गया आज पानी भी जहर,
होती जब घमासान वर्षा की कहर ।
खुश होते हैं महलों वाले,
गर्जन करता जब बादल काले- काले,
वर्षा के बूंद -बूंद देखते मन मतवाले,
खाते वर्षा में चाट-पकौड़े अधिक मसाले,
जाने कैसे इनकी बीते पहर दो पहर,
होती जब घमासान वर्षा की कहर ।
क्या होगी झुग्गी, झोपड़ी की मस्ती,
जलप्लावन में डुब रही है उनकी हस्ती,
इनके जीवन का क्या मोल जब है इतनी सस्ती,
टूटे-फूटे छप्पर भी बनाया टूटे खाट को कस्ती,
जीवन पर ही टूटा पाषाण शिखर,
होती जब घमासान वर्षा की कहर ।
-उमा झा