है शिक्षक ही जो दीपक की तरह दिन रात जलता है
मुसलसल ग़ज़ल
बह्र-हजज़ मुसम्मन सालिम
है शिक्षक ही जो दीपक की तरह दिन रात जलता है।
न जाने कितने सीनों के अँधेरों को निगलता है।।
तराशे है कि हुनर की ठोकरों से एक शिल्पी सा।
वही बेडौल सा पत्थर हसीं मूरत में ढलता है।।
दिखे जो गल्तियों पर सख़्त पत्थर सा हमेशा ही।
वही, हो नर्म लहजा मोम के जैसा पिघलता है।।
कहें सब दौड़ होती एक मुल्ला की तो मस्जिद तक।
तो इसका वक़्त भी स्कूल और घर में निकलता है।।
अगर है गोद में सृजन, प्रलय भी पलता सीने में।
अगर आ जाये ज़िद पर तख़्तो-ताजो को बदलता है।।
“अनीश” अब वक़्त है किसको भला कोई ये क्यों सोचे।
कि महंगाई में कैसे उसका ये परिवार चलता है।।
@nish shah