है आरंभ की आकांक्षा।
अंत ही आरंभ है आरंभ की आकांक्षा।
तुम चलो विध्वंस मध्य आग को लपेटने।
लपट लपट अग्नि हो झपट झपट हो कृपाण।
और नवीन गान युद्ध राग को समेटने।
प्रेम में आसक्त हो पवित्र निर सा बहो ।
प्रेम में टूटे हुए नवीन स्वप्न जाल बुन।
रक्त में उबाल भर कि नेत्र लाल लाल हो।
क्यों हुआ है यह बिसात तुम यही सवाल बुन।
काल के कपाल पर और कराल भाल पर।
मढ़ के शौर्य रक्त से अभय निशान कर।
तेज भास्कर समान वृहद वक्ष कर उतान ।
अंत क्या आरंभ क्या तुम यहां निदान कर।
निहित समग्र भाव है प्रतीक दीप्ति मान वो।
प्रेम व्याप्त चित में राग ज्वाल पूंजवान है।
रण के मध्य है प्रखर अग्नि शैल की शिखर।
तथैव सात लोक का वही तो स्वाभिमान है।
हे शिवम् मत नकार है सत्य क्रुद्ध काल पर।
जमा चुकी पैर आदिशक्ति शिव के भाल पर।
अंत ही आरंभ है आरंभ की आकांक्षा।
आभास है मुझे मगर तू स्वयं से सवाल कर।
©® दीपक झा “रुद्रा”