हे विश्वनाथ महाराज
हे विश्वनाथ महाराज नाथ, तुम सुन लो अरज हमारी
आतंक से दुनिया हलकान है, मार रहे नर नारी
मानवता है तार तार, करतूत है इनकी न्यारी
रेत रहे इंसान की गर्दन, मां बहनों की लाज हमारी
हे विश्वनाथ महाराज नाथ, तुम सुन लो अरज हमारी
हे त्रिपुरारी सब जीवो के स्वामी, मैं क्या हाल बताऊं
अखिल विश्व है हलाकान, मैं क्या क्या तुम्हें सुनाऊं
तुम ही ईश्वर तुम ही अल्लाह, तुम सद्गुरु तुम जीसस
लड़ते हैं तेरे नामों पर, धर्म के नाम पर हिंसा
नहीं बचा मेहफूज, दुनिया का कोई हिस्सा
मार रहे बूढ़े बच्चे, मां बहनों को रोज उठाते हैं
बीच बाजार में बम है फटते, लाखों मारे जाते हैं
मासूमों को नहीं बख्सते, स्कूलों में उन्हें उड़ाते हैं
घायल है मानवता नाथ, दानवता जग में फैल रही
प्रेम और करुणा की हत्या, सारे जग में रोज हुई
हे विश्वनाथ रोको अब तो, हे दुनिया सारी त्रस्त हुई
हे विश्वनाथ अब दया करो, दुखियों पर अब कृपा करो
हे नाथ तुम्हारे नामों पर, मानव हत्या बहुत हुई
घायल है यह धरती माता, सारे जग में चीत्कार हुई
हे निराकार ,साकार, हे आत्म तत्व के स्वामी
सबके मन की जानने बाले, तुम हो अंतर्यामी
नाथ धर्म की दशा तुम्हें मैं क्या बतलाऊं
लुप्त प्राय हैं धर्म के लक्षण, क्या मैं तुम्हें बताऊं
सत्य शांति और दया क्षमा, दिल में आज नदारद है
धर्म हुआ पाखंड में परिणित, आचरण में नहीं समाहित है
कई पंथ संप्रदाय धर्म के, दुनिया में आज प्रचारित हैं
सत्य प्रेम करुणा ही केवल, जग में आज नदारद हैं
मैं कैंसे बताऊं नाथ, मैं क्या क्या हाल सुनाऊं
धर्म के नाम पर घोर अनर्थ, कैसे पार मैं पाऊं
अत्याचार अनाचार भ्रष्टाचार, जगत में जारी है
कई नारियां रखे हुए, कहलाता ब्रह्मचारी है
सदभाव और सदाचार, इस जग में केवल नारे हैं
जिसको देखो उपदेश करें, जीवन में नहीं उतारे हैं
सुख शांति संतोष यहां पर, कहीं नहीं दिखते हैं
अभिलाषाएं यहां असीमित, असंतोष ही दिखते हैं
मात पिता गुरु बंधु यहां, दुश्मन से देखे जाते हैं
मां बहनों के चीरहरण, इस जग में देखे जाते हैं
हाल धरा के नाथ आज, मैं कैसे तुमसे बयां करूं
सारी धरती हुई प्रदूषित, नाथ रहूं तो कहां रहूं
जल नभ धरती तीनों जग में, महा प्रदूषित हुए हैं
कैसे लूं में सांस नाथ, वायु भी तो प्रदूषित है
मेरी असीम तृष्णा ने, काट दिए जंगल सारे
सूख गई नदियां धरती की, नहीं रहे अब नद नारे
बंजर हो गए खेत हमारे, बरस रहे हैं अंगारे
नहीं रही नैतिकता, ना नैतिक मूल्य हमारे
संस्कृति विस्मृत है, घर परिवार हमारे
स्वारथ के बढ़ गए दायरे, हो गए हम तो मतबारे
नीति नियम मर्यादा, सदाचार सब चले गए
उत्श्रंखिल हुआ समाज, लोग पुराने चले गए
हिंसा और अज्ञान ने, जग में अपने पांव पसारे
कहां जाऊं हे नाथ, शांति के बंद हुए दरवाजे
कुछ तो कीजिए नाथ, नेत्र अब तीसरा खोलो
मिट जाए आतंक नाथ, अब कुछ तो बोलो
धरा हुई बेचैन नाथ, अब कुछ तो कीजिए
हरी भरी धरती हो जाए, नाथ अभय अब दीजे
नहीं कहीं आतंक, नाथ न हिंसा होवे
सारा जग हो सुखी शांत, आपा न खोवे
हे विश्वनाथ महाराज अरज है, टेर हमारी
सत्य प्रेम और करुणा से भर जाए, पावन धरा हमारी
अन्याय आतंक मिटे, सब अवगुण मिटें हमारे
कहीं ना कोई भेदभाव हो, आनंद हो दुनिया सारी
नहीं धर्म के झगड़े हों, न अगड़े हों न पिछड़े हों
नहीं कोई अंचल पर झगड़े, जात पात के न हों पचड़े
सारे जग में समता आए, मां सी ममता सब में आए
धरती हरी भरी हो जाए, जग का प्रदूषण मिट जाए
सप्त स्वरों में निर्मल वाणी, नाम तेरा मिलजुलकर गाये
हे काशी के विश्वनाथ स्वप्न मेरा पूरा हो जाए
(उक्त रचना दि.१८.०३.२०१८ को काशी विश्वनाथ के दर्शन करने जाते समय रेल में लिखी गई)