हे प्रभो
प्रभो फिर से धरा पर तू उतर आ , कष्ट हरने को ।
यहाँ चहु ओर बैठे नाग काले , रोज डसने को ।।
इरादें नेक हो सकते न , उनके इस जमीं पर अब ।
लगा कर आग दुश्मन ने , हमें छोड़ा सुलगने को ।।
यहा खाकर बजाते है , पड़ोसी देश की वो क्यों ।
शरण दी मुल्क ने उन्हें , जमीं पर इस बसे रहने को ।।
गरीबों की जलें जब झोपड़ी , तब होलि हो उनकी ।
नजर आते न अब आसार , लोगों के सुधरने को ।।
कभी भूलें न करना , देश को कमजोर करने की ।
जरूरत गर पडी तो , हम रहे तैयार मरने को ।।
खडे है जो जवाँ , इस देश को शत्रु से बचाने को ।
तभी उठती तड़प उनमें , तिरंगे में लिपटने को ।।
सिखाता है वतन मेरा , करो सबसे मुहब्बत तुम ।
मगर लौं जल उठी अब , मजहबी रज बन बिखरने को ।।
डा मधु त्रिवेदी