**हे प्रभु!यह कैसा मृत्योत्सव है**
टूट चुके हैं स्वप्न जगत के,
जीवन का परिमल सब छूटा,
आशाएँ हैं भय से आकुल,
बचे प्रेम का पुल जब टूटा,
थोड़ी जो कुछ सहानुभूति थी,
घर का रोशनदान पकड़ती,
न रंग है न दीपक जलता,
फिर यह कैसा उद्यम उत्सव है,
कर्तव्य सिमटता बस पुस्तक तक,
शिक्षा लेती धन की अंगड़ाई,
आदर्शों की बात करें जब,
कह देता मत छू परछाईं,
हर घर में यह प्रकट हुआ है,
दुःख और सन्देह का दानव,
घर वाले ही दूर हट गए,
झट पट वह दे देते साँकल,
काल हुआ है परम वीर अब,
भूल गया वह मृत्यु का अन्तर,
युवक बुढ़ापा भूल गया वह,
चुन चुन कर वह मृत्यु बाँटता,
देख देख कर विकल धरा को,
विकृत रूप हुई है मनीषा,
चिंतन की परिभाषा है बदली,
स्नेह रिक्त और ठगा सा,
कोना कोना हुआ मणिकर्णिका,
अब तो सुधरो, जिओ जीवन के,
अन्तिम क्षण को प्रेम संग में,
करो प्रार्थना जोर लगाकर,
हे प्रभु!तुम तो दीन बन्धु हो,
जगत आधार जगन्नाथ हो,
त्राहि त्राहि करता जग सारा,
अन्त करो अब इस प्रयाण का,
कैसा यह अमंगल उत्सव है,
हे प्रभु!यह कैसा मृत्योत्सव है।
©अभिषेक पाराशर????