हे पथिक !
पिक बोलती ,
दिक् खोलती ,
तू सो रहा अब जाग।
हे पथिक!
किस गहन गह्वर से है
बाधित राग ।
गिर पड़ी वर्षा की बूँदें,
तू पड़ा पर्यंक पर I
दे भिंगों चल
चित्त तृष्णित
चल भले ही पंक पर।
खिल उठे
सुसान -कण,
तू जले चिन्ता की आग ।
मार ऋतु की
मधुर सब
अमराईयाँ मंजुल दिखे।
रंग भर ले अंग में
ठिठुरे नही जो कुल दिखे।
कुंज -कोकिल
स्वर बनो ,
न कि जैसे उड़ता काग ।
दिनमान मान
प्रचण्ड हो जब
नम्र मुख कर।
भर ले सुख के स्वेद को
झोंकों में झुक कर l
है दिन बड़ा
तू सो पड़ा,
आगे निशा है जाग I