हे दीपशिखे!
हे दीपशिखे
तुम सतत निरंतर इन अजस्र स्रोतों में बहती रहती हो,
हे दीपशिखे!
दुनिया की मधुरमयी धारा में नित स्रोतस्विनी होकर तुम, स्वतप्त पिघलती रहती हो, हे दीपशिखे!
तू प्राणमयी तू ओजस है तू स्वर्णमयी, तू तेजस है जग के कण-कण में प्रकृति की,मन प्राण बसे की रेतस है, तुम नित्य निरंतर समय चक्र में वलयगति से जलती हो,
हे दीपशिखे!
तुम दलित नहीं,तुम पीड़ित नहीं, तुम स्वतंत्रता के छंद प्रिये! तुम ईडा-पिंगला, सूर्य-चंद्र, तुम तापस हो स्वच्छंद प्रिये! तुम्ही कभी उनचास पवन बन प्राण फूँकती रहती हो,
हे दीपशिखे!
–कुमार अविनाश केसर