हे जाति तू नीच है
हे जाति तू है नीच, बदनाम व अस्पर्श ।
तेरे साथ खाना तो छोड़ रहना भी बेकार ।
रहना छोडदे तू मेरे आस-पास,
तेरी वज़ह से मेरा खोता है विश्वास ।
तू मुझे लगती है बहुत बुरी,
इसलिए मैंने तुझसे बना ली है दूरी ।
हे जाति तू मेरा कराती है उपहास,
जगह-जगह मुझे पड़ा झेलना,
तेरे नाम से मुझे मिलती है घृणा ।
वैसे तो अहंकार है तुझे ग्रेट होने का,
लेक़िन दुत्कार भी सहा तेरे नाम का ।
सदियों से पुरखों ने झेला,
तेरे नाम का दंश ।
मुझे कहीं क्यूँ नहीं दिखता,
तेरे जीवित होने का अंश ।
देख तू मेरा पीछा छोड़ दे,
इस जहाँ में मुझे अकेला छोड़ दे ।
मैं जी लूँगा यहाँ किसी भी हाल में,
है यकीं मुझको कोई भी ठोकरें न मरेगा,
अगर तेरा साया मुझसे दो गज दूर रहेगा ।
तू ही उँच और नीच तू ही,
क्यूँ रखती उलझा हुआ मुझे ।
गर रहता हूँ दूर मैं तुझसे,
मिलता है अमन-ओ-चेन मुझे ।
अगर तेरा अस्तित्व न होता,
नींद चैन की जग सोता ।
“आघात” तू अपनी छोड़ ही दे,
कोई दुःखी न इस चमन में रोता ।।