हे जग की माता
अवनी—अम्बर को आलोकित
करती निर्मल हंसी तुम्हारी
मां! तुम पर बलि—बलि जाते हैं
भूमण्डल के सब नर—नारी
सभी तुम्हारी अनुकम्पा के
याचक हैं, हे जग की माता !
जिस पर तुम प्रसन्न हो जाती
वह ही मनवांछित वर पाता
जो तेरी सेवा करते, वे
सबसे ज्यादा भाग्यवान हैं
प्राप्त उन्हें होते सुख सारे
जन—जन कहता वे महान हैं
सेवा के बदले में मेवा
बिन मांगे ही मिल जाती है
मिट जाती भव—बाधा सारी
ऋद्धि—सिद्धि घर में आती है
महेश चन्द्र त्रिपाठी